ब्रह्म विवाह ही उत्तम विवाह : पौराणिक जी

श्री सीताराम का जो स्वयंवर विवाह था. किंतु ऋषियों ने ब्रह्म विवाह कराकर वैदिक परंपरा का अनुपालन किया तथा कराया एवं समाज को शिक्षा दी कि स्वयंवर विवाहों के होने पर भी ब्रह्म विवाह ही उत्तम है. अतः स्वस्थ मानव समाज को ब्रह्म विवाह का ही आसरा लेना है. 




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- सर्वजन कल्याण सेवा समिति सिद्धाश्रम धाम द्वारा आयोजित है श्रीलक्ष्मी नारायण महायज्ञ सह श्री राम कथा
- वासना विवाह के कारण देवर्षि नारद और शूर्पणखा दोनों का अहित
                        
बक्सर टॉप न्यूज़, बक्सर : "श्री रामचरित में विवाह का बड़ा ही विचित्र वर्णन है. यदि रामायण के विवाह के रहस्य का सही उद्घाटन मानव मन में हो जाए तो पुरुषार्थ चतुर्थ पूर्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा. रामायण में कुल चार विवाह का वर्णन हुआ है. एक देव विवाह शिव -पार्वती का जो सर्वथा ब्रह्म विवाह की विधि से संपन्न हुआ और सफल भी तथा दूसरा विवाह नर विवाह श्री सीताराम का जो स्वयंवर विवाह था. किंतु ऋषियों ने ब्रह्म विवाह कराकर वैदिक परंपरा का अनुपालन किया तथा कराया एवं समाज को शिक्षा दी कि स्वयंवर विवाहों के होने पर भी ब्रह्म विवाह ही उत्तम है. अतः स्वस्थ मानव समाज को ब्रह्म विवाह का ही आसरा लेना है. यह कहना है आचार्य कृष्णानंद शास्त्री "पौराणिक जी" महाराज का. वह सर्वजन कल्याण सेवा समिति सिद्धाश्रम धाम द्वारा आयोजित श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ सह नव दिवसीय श्री राम कथा का पंचम दिवस के अपने प्रवचन के दौरान बोल रहे थे. 

उन्होंने आगे बताया कि तीसरा विवाह ऋषि विवाह- देवर्षि नारद से संबंधित है. नारद जी कामदेव से वशीभूत होकर विवाह करना चाह रहे थे. अतः यह विवाह भंग हो गया नारद जी की बड़ी दुर्गति हो गई यह वानर बन गए. इससे शिक्षा मिलती है कि कामी बनकर मात्र वासना से प्रेरित जो विवाह है वह अत्यंत कष्टप्रद होता है तथा मानव को तो छोड़ो देव ऋषि को भी वानर बनाकर अपयश एवं अपकीर्ति प्रदान करता है.

चौथा विवाह राक्षसी का विवाह है. यह विवाह मात्र भोग की भावना से प्रेरित होकर वासना की ज्वाला से दर्द था. अतः वासना ने नाक कान कटवा कर विवाह को विनाश कर दिया. भारतीय सनातन पद्धति में विवाह का मुख्य उद्देश्य है योग, जिसके द्वारा स्त्री पुरुष मिलकर अंत रस में योग साधना को सम्मिलित करते हैं तथा भोग भावना को नियंत्रित करते हैं. इसके विपरीत भोग भावना वासना से विवाह या तो विनष्ट हो जाता है या विनष्ट कर देता है.

अतः देवर्षि नारद का काम एवं शूर्पणखा की वासना के कारण दोनों विवाह असफल हो गए. जबकि शिव पार्वती, सीताराम का विवाह सफल एवं सिद्ध हुए. वर्तमान समय में इन दोनों विवाहों के अतिरिक्त सभी विवाहों का हेतु काम एवं वासना हो गया है. अतएव विवाह संस्कार विनष्ट हो गया है. 

हेतु दूषित होने से विवाह क्रिया भी बदबूदार हो गई है. अभी जो विवाह हो रहे हैं उन विवाहों में वरमाला या जयमाल तथा रिंग सेरेमनी यह दोनों क्रमशः राक्षस राक्षसी हैं, जिनका काम एक मात्र है कि यह विवाह पद्धति को विनष्ट कर देते हैं. अतः मृत विवाह होने के कारण मानव रूप में दानव संतान जन्म लेती हैं. जयमाल एक बिस्तर नाग है जिसे हम नागमाल कहे तो अच्छा है. बेशर्मी की सीमा पार कराकर निरस्त की विधि पर बैठने वाला यह नागमाल विवाह मुहूर्त को डंस लेता है. इसके डंक से मुहूर्त मृत होकर साथ छोड़ देता है तब विवाह बिना मुहूर्त का होने के कारण मृत्यु विवाह अर्थात अशुभ विवाह हो जाता है. जो राक्षस बुद्धि संपन्न संतान का जन्मदाता है. यहीं से सनातन धर्म के नाशक मानव समाज बढ़ता पलता है. जो सब तरह से हटकर है. श्री सीताराम विवाह से मानव समाज को शिक्षा लेकर विधि-विधान से ब्रह्म विवाह करना चाहिए जो सनातन धर्म का जनक एवं रक्षक है."







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