आरटीआई मंच के प्रदेश महासचिव ने कहा, कोरोना जांच में बिहार की स्थिति सबसे ख़राब ..

औद्योगिकीकरण और वृद्धि के आगे राजनीति और संरक्षण ने भी रोड़े अटकाए हैं. विकास और स्थायित्व से जुड़े साक्षरता, गरीबी और गैरबराबरी जैसे पहलुओं को भी नजरअंदाज किया जाता रहा. समावेशी विकास की रणनीति से अभी भी ऐसे परहेज किया जा रहा है मानो इसे छू लेने भर से तरक्की का ग्राफ भरभराकर नीचे आ गिरेगा. 

- कहा, जांच की स्थिति है बेहद खराब, रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होने के कारण राज्य में काम है मृत्यु दर
- कहा, कोरोना संकट के बीच आने वाले दिनों के लिए श्रम शक्ति में सुधार से जुड़े सवाल भी उठ रहे

बक्सर टॉप न्यूज़, बक्सर: राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पाण्डेय के मुताबिक, "15 जून तक राज्य के सभी ज़िलों में कोरोना की जांच शुरू हो जाएगी. अभी राज्य में 5000 सैंपल की जांच हो सकती है. लेकिन हमारा लक्ष्य है कि दस हज़ार सैंपल की जांच की क्षमता 20 जून तक प्राप्त कर ली जाएं. इसके अलावा वर्तमान में राज्य में तकरीबन 21 हज़ार आइसोलेशन बेड है जिसे बढ़ाकर 40 हज़ार करने की योजना है." यह पूरी तरह से फेल हो चुकी है. उधर, इन दावों से इतर जन स्वास्थ्य को लेकर काम कर रहे विशेषज्ञ सरकारी इंतजाम को नाकाफी और बदहाल बताते है. यह कहना है बिहार आरटीआई मंच के प्रदेश महासचिव अमित राय का. 


उन्होंने कहा जन स्वास्थ्य अभियान के डॉ शकील कहते है, "तीन बातें अहम हैं. पहला कोरोना की जांच के मामले में बिहार की स्थिति सबसे ख़राब है. एक लाख की आबादी पर यहां तकरीबन 54 टेस्ट हुए है. यानी टेस्ट -ट्रीट- ट्रैक -आइसोलेट का जो चक्र हमें फॉलो करना था, वो नहीं हो रहा है. दूसरा ये कि राज्य में क्वारंटीन सेंटर की व्यवस्था बहुत ख़राब है और होम क्वारंटीन गरीबों के घर मुमकिन नहीं है. तीसरा ये कि बिहार में कोरोना के मामलों मे अभी पीक आया ही नहीं है. बाक़ी हमारे यहां कोरोना से मौतें कम है, लेकिन इसकी वजह हमारी प्रतिरोधात्मक क्षमता है."

कोरोना महामारी के फैलाव और लॉकडाउन की लंबी अवधियों के बीच भारत में श्रमिकों के हालात और अर्थव्यवस्था में उनके योगदान और श्रम रोजगार से जुड़ी राजनीतिक आर्थिकी के कुछ अनछुए और अनदेखे अध्याय भी खुल गए हैं. पहली बार श्रम शक्ति की मुश्किलें ही नहीं, राज्यवार उससे जुड़ी पेचीदगियां भी खुलकर दिखी हैं. एक साथ बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूरों का अपने घरों को लौटने के असाधारण फैसले के जवाब में राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के पास कोई ठोस कार्रवाई या राहत प्लान नहीं दिखा, जिससे समय रहते हालात सामान्य हो पाते. प्रवासी मजदूरों के बीच जान बचाने और अपने घरों को लौट जाने की देशव्यापी दहशत के बीच सरकारों की मशीनरी भी असहाय सी दिखी.

गुजरात, पंजाब और तमिलनाडु जैसे राज्य भले ही विकास के कई पैमानों पर अव्वल राज्यों में आते हों लेकिन अपने अपने घरों को बेतहाशा लौटते मजदूरों को रोके रखने के उपाय करने में वे भी पीछे ही रहे. हालांकि ये भी एक सच्चाई है कि भारत में प्रवासी मजदूरों की स्थिति विभिन्न राज्यों के असमान विकास के साथ जुड़ी हुई है. मजदूरों की मनोदशा के अलावा उन्हें काम देने वाले उद्यमों की जरूरत को भी समझने की जरूरत है. सच्चाई ये भी है कि सरकारें सहानुभूति दिखा सकती हैं लेकिन खर्च वही कर सकती हैं जो उनके पास है. राज्यों को इस तरह का विकास करने की जरूरत है कि उनके पास जरूरी कुशल मजदूर रहें, उन्हें उचित मजदूरी मिले और मजदूरों का कल्याण भी हो. अप्रैल में केंद्र सरकार ने गरीबों और जरूरतमंदों के लिए 1.70 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज का ऐलान किया था. लेकिन आर्थिक विशेषज्ञों ने एक व्यापक वित्तीय पैकेज की मांग उठायी है.

कोरोना संकट के बीच आने वाले दिनों के लिए श्रम शक्ति में सुधार से जुड़े सवाल भी उठे हैं और संघीय ढांचे वाले भारत के लिए विकास कार्यक्रमों और नीतियों पर नये सिरे से चिंतन और क्रियान्वयन की जरूरत भी आ पड़ी है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे कार्यालय के आंकड़ों के मुताबिक भारत में श्रम शक्ति भागीदारी दर करीब आधा रह गयी है. यानी पहली बार ऐसा हुआ है कि 15 साल से ऊपर काम करने वाली भारत की आधी आबादी, किसी भी आर्थिक गतिविधि में योगदान नहीं दे पा रही है. दिसंबर 2019 में श्रम शक्ति भागीदारी दर गिरकर 49.3 प्रतिशत हो गई. 2018 में ये 49.4 प्रतिशत आंकी गयी थी. इस साल मार्च में भारत की आबादी एक अरब 31 करोड़ से ज्यादा हो गई है. और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनमी (सीएमआईई) के ताजा आंकडों के मुताबिक अप्रैल माह तक भारत में बेरोजगारी की दर 27 प्रतिशत की डरावनी ऊंचाई पर जा चुकी है.

भारत की लोकतांत्रिक जटिलता, भौगोलिक विस्तार और विविधता और विकास नीति की एक अव्यवस्थित और अस्तव्यस्त सी प्रकृति रही है. औद्योगिकीकरण और वृद्धि के आगे राजनीति और संरक्षण ने भी रोड़े अटकाए हैं. विकास और स्थायित्व से जुड़े साक्षरता, गरीबी और गैरबराबरी जैसे पहलुओं को भी नजरअंदाज किया जाता रहा. समावेशी विकास की रणनीति से अभी भी ऐसे परहेज किया जा रहा है मानो इसे छू लेने भर से तरक्की का ग्राफ भरभराकर नीचे आ गिरेगा. राज्यों को न सिर्फ कौशल आधारित उद्योगों को प्रोत्साहन देना होगा बल्कि उन्हें अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा से भी जोड़ना भी होगा ताकि कामगारों के पास नकदी का अभाव न रहे, उनके सामने वेतन और पगार का संकट न रहे और उन्हें काम पर रखने वाले उद्योगों के पास उन्हें देने के लिए पर्याप्त धनराशि बनी रहे और खपत के लिए एक बाजार भी बना रहे. ऐसे उत्पाद कृषि और बागवानी के अलावा खाद्य सेक्टरों से तलाशे जा सकते हैं. प्रकाशन, मनोरंजन, मीडिया, प्रसाधन, प्रबंधन, होटल और पर्यटन जैसे सेवा सेक्टरों में भी अपार विस्तार की संभावनाएं हैं. पूंजी निवेश की एक सुनियोजित व्यवस्था तो राज्यों को बनानी ही होगी.

अमित राय, प्रदेश महासचिव
बिहार आरटीआई मंच, बिहार प्रदेश











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