कैकयी ने माँगा राम का वनवास, भक्त नरसी पर कृपालु हुए श्री कृष्ण ..

राम की शपथ दिलाकर राजा से दो वर 'भरत को राजगद्दी' और 'राम को वनवास' मांगती हैं. यह सुनकर राजा हतप्रभ रह जाते हैं और दुखी मन से रानी के सामने अनुनय विनय करते हैं लेकिन रानी की हठ के आगे विवश हो जाते हैं. अंतत: वह असहनीय कष्ट के चलते मूर्छित हो जाते हैं. 


- "कैकेयी मंथरा संवाद व दो वरदानों की कथा सहित 'भक्त नरसी चरित्र भाग-2 ' का हुआ मंचन"
- किला मैदान के रामलीला मंच पर आयोजित 21 दिवसीय विजयादशमी महोत्सव का नौवां दिन 

बक्सर टॉप न्यूज़, बक्सर : श्री रामलीला समिति के तत्वावधान में रामलीला मैदान स्थित विशाल मंच पर चल रहे 21 दिवसीय विजयादशमी महोत्सव के दौरान नौवें दिन को श्रीधाम वृंदावन से पधारी सुप्रसिद्ध रामलीला मण्डल श्री श्यामा श्याम रासलीला संस्थान के स्वामी नन्दकिशोर रासाचार्य के सफल निर्देशन में दिन में देर रात्रि मंचित रामलीला के दौरान "कैकेयी मंथरा संवाद व दो वरदानों की कथा" नामक प्रसंग का मंचन किया गया. जिसमें दिखाया गया कि राजा दशरथ सभी सभासदों के समक्ष श्रीराम को युवराज पद देने का प्रस्ताव रखते हैं और सभी उस पर अपनी सहमति देते हैं. 


धूमधाम से राम के राजतिलक की तैयारियां चलती हैं इसी बीच दासी मंथरा जाकर रानी कैकेयी के कान भरती है. तब रानी अपनी दासी मंथरा की बातों में आकर आभूषण आदि त्यागकर कोप भवन में चली जाती हैं. यह समाचार पाकर राजा दशरथ वहां जाते हैं और रानी से इसका कारण पूछते हैं. रानी कैकेयी तब राजा को पूर्व में दिए गए दो वर मांगने का वचन याद दिलाती हैं. राम की शपथ दिलाकर राजा से दो वर 'भरत को राजगद्दी' और 'राम को वनवास' मांगती हैं. यह सुनकर राजा हतप्रभ रह जाते हैं और दुखी मन से रानी के सामने अनुनय विनय करते हैं लेकिन रानी की हठ के आगे विवश हो जाते हैं. अंतत: वह असहनीय कष्ट के चलते मूर्छित हो जाते हैं. 



जब यह समाचार राम को मिलता है तो वह अपने पिता की आज्ञा से सहर्ष ही वन जाने को तैयार हो जाते हैं. वहीं सीताजी और लक्ष्मण भी उनके साथ वन जाने की हठ करते हैं. वल्कल वस्त्र धारणकर राम लक्ष्मण और सीता अपने पिता से अनुमति लेने जाते हैं और पुत्र वियोग में राजा दशरथ हृदय विदीर्ण करने वाला विलाप करते हैं. यह देख  दर्शक भाव विभोर हो जाते है और पूरा लीला स्थल जय श्रीराम के उद्घोष से गुंज उठता हैं. इस दौरान सम्पूर्ण रामलीला परिसर श्रद्धालुओं से खचाखच भरा हुआ था.


इसके पूर्व दिन में कृष्ण लीला के दौरान "भक्त नरसी चरित्र भाग-2" नामक प्रसंग का मंचन किया गया, जिसमें दिखाया गया कि भक्त नरसी दिन-रात भजन कीर्तन में लगे रहने और भरण-पोषण के लिए कोई कार्य न करने के कारण नरसी जी के परिवार में उपवास की स्थिति आ जाती थी. इनकी पत्नी ने इनसे बहुत बार कुछ कार्य करने के लिए कहा, किन्तु इनका विश्वास था कि इनके भरण-पोषण की सारी व्यवस्था भगवान स्वयं करेंगे क्योंकि इनकी पुत्री के विवाह की सम्पूर्ण व्यवस्था भी भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं की. इसी प्रकार इनके पुत्र का विवाह भी उन्ही की कृपा से सम्पन्न हुआ. इसलिए नरसी को अपने भगवान पर पूरा विश्वास होता है. 

एक बार नरसी मेहता की जाति के लोगों ने उनसे कहा कि तुम अपने पिता का श्राद्ध करके सबको भोजन कराओ. नरसी ने भगवान श्री कृष्ण का स्मरण किया और देखते ही देखते सारी व्यवस्था हो गई. श्राद्ध के दिन कुछ घी कम पड़ गया और नरसी जी बर्तन लेकर बाजार से घी लाने के लिए गए. रास्ते में एक संत मंडली को इन्होंने भगवान नाम का संकीर्तन करते हुए देखा. नरसी भी उसमें शामिल हो गए. कीर्तन में यह इतना तल्लीन हो गए कि इन्हें घी ले जाने की सुध ही न रही. घर पर इनकी पत्नी बड़ी व्यग्रता से इनकी प्रतीक्षा कर रही थी. भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ने नरसी का वेश बनाया और घी लेकर उनके घर पहुंचे. ब्राह्मण भोज का कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न हो गया. 

कीर्तन समाप्त होने पर काफी रात्रि बीत चुकी थी. नरसी सकुचाते हुए घी लेकर घर पहुंचे और पत्नी से विलम्ब के लिए क्षमा मांगने लगे. इनकी पत्नी ने कहा, ‘‘स्वामी! इसमें क्षमा मांगने की कौन-सी बात है? आप ही ने तो इसके पूर्व घी लाकर ब्राह्मणों को भोजन कराया है. नरसी ने कहा, ‘‘भाग्यवान, तुम धन्य हो! वह मैं नहीं था, भगवान श्री कृष्ण थे. तुमने प्रभु का साक्षात दर्शन किया है. मैं तो साधु-मंडली में कीर्तन कर रहा था. कीर्तन बंद हो जाने पर घी लाने की याद आई और इसे लेकर आया हूं. यह सुन कर नरसी जी की पत्नी आश्चर्य में डूब गईं. कुछ वर्ष बाद इनकी पत्नी और पुत्र का देहांत हो जाता है, और ये अपना सम्पूर्ण समय भगवान के भजन में बिताने लगे. 










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