कहीं कोरोना, कहीं प्रत्याशी, कहीं अधूरा विकास और कहीं भितरघात बना एनडीए की शिकस्त का कारण ..

मिलनसार स्वभाव के होने के बाद भी जनता की परेशानियों को सफल नहीं हुए. मतदान के अंतिम समय में तेजस्वी के "बाबू साहब" वाले बयान पर एक बार तो यह लगा था कि, लोग अधूरे विकास की बात भूल गए और एक बार फिर संतोष कुमार निराला को जिताने जा रहे हैं लेकिन, ऐसा नहीं हो सका.

 


- मददगार छवि बनी ब्रह्मपुर में सबसे बड़ी जीत का कारण
- राजपुर का अधूरा विकास परिवहन मंत्री को पड़ा भारी

बक्सर टॉप न्यूज, बक्सर: महागठबंधन ने शाहाबाद पर अपना कब्जा कर यह बता दिया है कि जो वादे एनडीए की सरकार कर रही है उन वादों की धरातल पर सच्चाई कुछ और ही है. यह अलग बात है कि, नीतीश कुमार का मैजिक अभी पूरे बिहार से खत्म होता नहीं दिखाई दे रहा लेकिन, कई महत्वपूर्ण सीटों को गंवाने के बाद नई सरकार को अपनी हार की समीक्षा करनी ही होगी. हालांकि, मोदी अथवा नीतीश मैजिक के साथ-साथ लोजपा का गठबंधन के टूटने भी कहीं ना कहीं महागठबंधन की जीत में सहायक बना है. बात बक्सर विधानसभा की चारों सीटों की करें तो ब्रह्मपुर में शंभू यादव की जीत कोरोना काल मददगार बन लोगों  के बीच उनकी बढ़ी लोकप्रियता को माना जा रहा है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि ब्रह्मपुर में लोजपा और एनडीए को मिले वोटों को मिला भी दे तो वह शंभू नाथ यादव को मिले वोटों से काफी कम है. 




वहीं, राजपुर की बात करें तो चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र से ज्यादा बक्सर और पटना में गुजारने वाले सूबे के परिवहन मंत्री संतोष कुमार निराला काफी मिलनसार स्वभाव के होने के बाद भी जनता की परेशानियों को सफल नहीं हुए. मतदान के अंतिम समय में तेजस्वी के "बाबू साहब" वाले बयान पर एक बार तो यह लगा था कि, लोग अधूरे विकास की बात भूल गए और एक बार फिर संतोष कुमार निराला को जिताने जा रहे हैं लेकिन, ऐसा नहीं हो सका. जीत-हार में एक बड़ा अंतर यह साबित करता है कि लोगों ने वाजिब मुद्दों पर चुनाव में मतदान किया है. 


बात डुमराँव की करें तो वहां भी थोपे हुए प्रत्याशियों को जनता ने नकार दिया. बंटी शाही को मिले 11 हज़ार से ज्यादा वोटों ने यह साबित कर दिया है. वहीं, ददन यादव का कथित तिलिस्म टूट गया और यह साबित हो गया कि यादवों के असली नेता वह नहीं हैं. 


बात बक्सर विधानसभा की करें तो बक्सर विधानसभा में पिछले चुनावों से जहां मतदाताओं की संख्या ज्यादा बढ़ी है वहीं, एनडीए और महागठबंधन के जीत का अंतर भी कम हो गया है. यह माना जा रहा है कि रालोसपा ने तीसरे मोर्चे के तौर पर चुनाव में अपनी धमक देकर कहीं ना कहीं जीत के अंतर को ही कम किया है लेकिन, यह भी तय है कि, टिकट के दावेदार पार्टी कार्यकर्ताओं के भीतरघात और परशुराम चतुर्वेदी जैसे जुझारू व्यक्ति को रणक्षेत्र में अकेले छोड़ देना ही कड़े मुकाबले में उनकी पराजय का कारण बना.  वहीं, मुन्ना तिवारी को जिताने में उसी क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका फिर से सामने आई जिससे पिछली बार वह लगभग 10 हज़ार वोटों से जीते थे.






















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