सुख के समुद्र हैं भगवान श्रीराम : रणधीर ओझा

भगवान राम की सुंदर बाल लीलाओं का वर्णन करते हुए बताया कि बचपन से ही लक्ष्मण जी की राम जी के चरणों में प्रीति थी और भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक की जिस प्रीति की प्रशंसा है, वैसी प्रीति हो गई. वैसे तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण के धाम हैं लेकिन सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं.




- नौ दिवसीय राम कथा के छठवें दिन श्री राम की बाल लीलाओं का वर्णन
- नगर के लाल बाबा आश्रम के तत्वाधान में आयोजित है श्री राम कथा

बक्सर टॉप न्यूज़, बक्सर : नगर के लाल बाबा आश्रम के तत्वाधान में आयोजित नौ दिवसीय राम कथा के छठवें दिन मामा जी के कृपापात्र आचार्य श्री रणधीर ओझा ने श्री राम के बाल लीला का वर्णन किया. भगवान राम की सुंदर बाल लीलाओं का वर्णन करते हुए बताया कि बचपन से ही लक्ष्मण जी की राम जी के चरणों में प्रीति थी और भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक की जिस प्रीति की प्रशंसा है, वैसी प्रीति हो गई. वैसे तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण के धाम हैं लेकिन सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं.


माँ कभी गोदी में लेकर भगवान को प्यार करती हैं. कभी सुंदर पालने में लिटाकर ‘प्यारे ललना!’ कहकर दुलार करती है, जो भगवान सर्वव्यापक, निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मे ब्रह्म हैं, वो आज प्रेम और भक्ति के वश कौसल्याजी की गोद में (खेल रहे) हैं. भगवान के कान और गाल बहुत ही सुंदर हैं. ठोड़ी बहुत ही सुंदर है. दो-दो सुंदर दँतुलियाँ हैं, लाल-लाल होठ हैं. नासिका और तिलक के सौंदर्य का तो वर्णन ही कौन कर सकता है? जन्म से ही भगवान के बाल चिकने और घुँघराले हैं, जिनको माता ने बहुत प्रकार से बनाकर सँवार दिया है. शरीर पर पीली झँगुली पहनाई हुई है. उनका घुटनों और हाथों के बल चलना बहुत ही प्यारा लगता है. उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते. उसे वही जानता है, जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो. भगवान दशरथ-कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं. इस प्रकार सबको सुख दे रहे हैं. इस प्रकार से प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बालक्रीड़ा की और समस्त नगर निवासियों को सुख दिया. 

कौशल्याजी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलाती और कभी पालने में लिटाकर झुलाती थीं. एक बार मैया ने भगवान को स्नान करवाया है. फिर मैया ने सुंदर श्रृंगार किया है और प्रभु को पालने में सुला दिया है.
इसके बाद माँ ने अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया. फिर भगवान की पूजा की है और नैवेद्य (भोग) चढ़ाया है और मैया रसोई घर में गई है. फिर माता वहीं पूजा के स्थान में लौट आई और वहाँ आने पर राम को इष्टदेव भगवान के लिए चढ़ाए हुए नैवेद्य का भोजन करते देखा. माता अब डर गई है की मैंने तो लाला को पालने में सुलाया था पर यहां किसने लाकर बैठा दिया, इस बात से डरकर पुत्र के पास गई, तो वहाँ बालक को सोया हुआ देखा. फिर पूजा स्थान में लौटकर देखा कि वही पुत्र वहाँ भोजन कर रहा है. उनके हृदय में कम्प होने लगा और मन को धीरज नहीं होता. हृदयँ कंप मन धीर न होई. माँ सोच रही है मैंने सच में 2 बालक देखे है या मेरी बुद्धि का भ्रम है. मुझे किस कारण से दो बालक दिखाई दिए हैं. माँ बहुत घबराई हुई हैं. लेकिन भगवान मां को देख कर मुस्कुरा दिए हैं. फिर भगवान ने माँ को अपना अद्भुत रूप दिखाया है. 

आचार्य श्री ने आगे श्रीरामचरितमानस में वर्णित मानस रोगों की चर्चा करते हुए कहा कि व्यक्ति को जीवन में दो प्रकार के रोगों (कष्टों) का सामना करना पड़ता है. पहला शारीरिक और दूसरा मानसिक रोग. आयुर्वेद शास्त्र की मान्यता है कि प्रत्येक मनुष्य के शरीर में कफ,वात और पित्त ये तीन तत्व विद्यमान रहते हैं तो इन तीनों के द्वारा ही मनुष्य स्वस्थ्य रहता है. इनमें असंतुलन आते ही शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग जन्म लेते हैं. आयुर्वेद का जो सिद्धांत शरीर की स्वस्थता के संदर्भ में लागू होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में कहा है कि  व्यक्ति के मन में काम ,क्रोध ,लोभ रहते हैं.

‘काम, वात, कफ लोभ अपारा।
‘क्रोध, पित नित छाती जाता ।।

प्रश्न होता है कि क्या मन में विद्यमान काम, क्रोध, लोभ को दुर्गुण मानकर पूरी तरह मिटा देनी चाहिए? गोस्वामी जी के मतानुसार काम क्रोध लोभ की निंदा कितनी भी की जाए परंतु स्वस्थ्य व्यक्ति के लिए इनकी भी आवश्यकता है. यदि इनको संतुलित रखने में व्यक्ति समर्थ है. जीवन से यदि काम को हटा दिया जाए तो श्रृष्टि समाप्त हो जायेगी. इसी प्रकार यदि मन में पीत रुपी क्रोध ना हो तो बुराई, अन्याई, अत्याचार से कौन लड़ेगा. सामाजिक जीवन छीन भिन्न हो जाएगी. अतः मानव जीवन में संतुलित क्रोध को भी स्वीकार किया गया है. मनुष्य अपने जीवन में जो कार्य करता है कर्म की उसे प्रेरणा मिलती है उसके मूल में लोभ ही होता है. लोभ के अभाव में उसकी क्रियाशीलता, कर्मठता ही समाप्त हो जायेगी. आचार्य श्री ने आगे बताया कि जब कोई कामना ही नहीं रहेगी तो व्यक्ति कर्म पथ पर अग्रसर क्यों होगा? राम कथा में काम क्रोध लोभ तीनो की आवश्यकता बताई गई है. हमारे धर्मशास्त्र इन्हे स्वीकार करते है. श्रीरामचरितमानस आदेश देता है इनका उपयोग धर्मानुसार को संतुलित मात्रा में हो जो हम सभी के जीवन, समाज एवं राष्ट्र  के लिए उपयोगी होगा.











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