बताया कि मनुष्य स्वयं को भगवान बनाने के बजाय प्रभु के दास बनने का प्रयास करें क्योंकि भक्ति भाव देखकर जब प्रभु में वात्सल्य जाता है तो वह सब कुछ छोड़ कर अपने भक्त रूपी संतान के पास पीछे दौड़े चले आते हैं. गृहस्थ जीवन में मनुष्य तनाव में जीता है जबकि संत सद्भाव में जीता है यदि संत नहीं बन सकते तो संतोषी बन जाओ संतोष सबसे बड़ा धन है.
- नगर के रामेश्वर नाथ मंदिर में आयोजित की गई थी भागवत महापुराण कथा
- आचार्य रणधीर ओझा ने बताया मित्रता का महत्व
बक्सर टॉप न्यूज, बक्सर :नगर के रामेश्वर मंदिर में सेवाश्रम न्यास समिति के तत्वधान में आयोजित श्रीमद् भागवत कथा महापुराण कथा विशाल भंडारे के साथ संपन्न हो गई. इस दौरान कथा के मुख्य यजमान गोपाल प्रसाद जायसवाल तक दुर्गा देवी जायसवाल ने श्रीमद् भागवत की महाआरती की तथा सभी को प्रसाद का वितरण किया गया.
इसके पूर्व कथा के सातवें दिन मामा जी के कृपापात्र आचार्य रणधीर ओझा ने श्री कृष्ण भक्त एवं बाल सखा सुदामा चरित्र , एवं शुकदेव जी द्वारा परीक्षित जी को दी गई उपदेश का वर्णन किया. आचार्य श्री ने बताया कि श्री कृष्ण एवं सुदामा की मित्रता समाज के लिए एक मिसाल है. सुदामा के आने की खबर सुनकर श्री कृष्ण व्याकुल होकर दरवाजे की तरफ दौड़ते हैं. “पानी परात को हाथ छूवो नाहीं, नैनन के जल से पग धोए.” श्री कृष्ण अपने बाल सखा सुदामा की आवभगत में इतने विभोर हो गए कि द्वारका के नाथ हाथ जोड़कर और उनसे लिपट कर जल भरे नेत्रों से सुदामा का हाल चाल पूछने लगे. इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मित्रता में कभी धन दौलत आड़े नहीं आती.
आचार्य श्री ने कहा कि ‘स्व दामा यश्य सः सुदामा’. अर्थात अपनी इंद्रियों को जो दमन कर ले वही सुदामा है. सुदामा की मित्रता भगवान के साथ नहीं स्वार्थी उन्होंने कभी उनसे सुख साधन या आर्थिक लाभ प्राप्त करने की कामना नहीं की लेकिन सुदामा की पत्नी द्वारा पोटली में भेजे गए पोटली में भेजे गए चावलों ने भगवान श्रीकृष्ण से सारी हकीकत बयां कर दी और प्रभु ने बिन मांगे सुदामा को सब कुछ प्रदान कर दिया.
भागवत ज्ञान यज्ञ सातवें दिन कथा में सुदामा चरित्र का वाचन हुआ तो मौजूद श्रद्धालुओं के भाव विभोर हो गए . आचार्य श्री ने कहा कि श्री कृष्ण भक्त वत्सल है सभी के दिलों में विहार करते हैं जरूरत है तो सिर्फ शुद्ध हृदय से उन्हें पहचानने की.
आचार्य श्री ने आगे शुकदेव परीक्षित की कथा सुनाते हुए कहा कि शुकदेव जी ने परीक्षित को अंतिम उपदेश देते हुए कहा कि कलयुग में कोई दोष होने पर भी एक लाभ है. इस युग में जो भी कृष्ण का कीर्तन करेगा उसके घर कली कभी नहीं प्रवेश करेगा. मृत्यु के समय परमेश्वर का ध्यान और नाम लेने से प्रभु जीव को अपने स्वरूप में समाहित कर लेते हैं उन्होंने बताया कि जन्म, जरा और मृत्यु शरीर के धर्म है, आत्मा के नही. आत्मा अजर-अमर है. इसलिए मानव को पशु बुद्धि त्याग कर अपने मन में भगवान की स्थापना करनी चाहिए.
आचार्य ने कहा कि भगवान सुखदेव ने सातवें दिन राजा परीक्षित को कथा सुनाते हुए बताया कि यह मनुष्य शरीर ज्ञान और भक्ति प्राप्त करने का साधन है और यह सभी फलों का मूल है. शरीर देव योग से मिला है जो उत्तम नौका के समान है. उन्होंने कहा कि परमात्मा का सुमिरन मन में होना चाहिए. कीर्तन करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर प्रभु को प्राप्त कर सकता है.
आचार्य ने अंत में बताया कि मनुष्य स्वयं को भगवान बनाने के बजाय प्रभु के दास बनने का प्रयास करें क्योंकि भक्ति भाव देखकर जब प्रभु में वात्सल्य जाता है तो वह सब कुछ छोड़ कर अपने भक्त रूपी संतान के पास पीछे दौड़े चले आते हैं.
गृहस्थ जीवन में मनुष्य तनाव में जीता है जबकि संत सद्भाव में जीता है यदि संत नहीं बन सकते तो संतोषी बन जाओ संतोष सबसे बड़ा धन है.
कथा आयोजन समिति में सिद्धाश्रम विकास सेवा समिति के अध्यक्ष सत्यदेव प्रसाद, सचिव रामस्वरूप अग्रवाल, नन्दलाल जायसवाल, अजय कुमार वर्मा, संजय कुमार सिंह के अलावे श्री रामेश्वरनाथ मंदिर सेवाश्रम न्यास समिति के अध्यक्ष प्रो. नागेन्द्रनाथ पाण्डेय, उपाध्यक्ष - विनय कुमार, कोषाध्यक्ष- बसंत कुमार, ट्रस्टी- हरिशंकर गुप्ता, सुरेश संगम, सहित अन्य सदस्य एवं पदाधिकारी मुख्य रूप से उपस्थित रहे.
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